17 Apr 2020

ज़िंदगी के सवालात थे

ज़िंदगी के सवालात थे, इसलिए लाजवाबी रही
सब मिला, सब गया छूटता, एक ये ही ख़राबी रही

पेट भरना सरल जब हुआ
भूख ने तब क्षमा माँग ली
प्रेम ने जब हृदय को छुआ
देह ने यातना माँग ली
चुक गई प्यास से दूध की हर नदी
एक लम्हे बिना, रो रही है सदी
भोर को चल न पाया पता, साँझ कितनी गुलाबी रही

ढल गई धूप, साए सभी
एड़ियों का बिछौना बने
आदमी की नियति है यही
खेलकर, फिर खिलौना बने
एक दिन जिस जगह से चला था कभी
ख़ूब दौड़े मग़र लौट आए वहीं
घट न पाया अँधेरा मग़र रौशनी बेहिसाबी रही

मुस्कुराहट रहे सींचते
आँसुओं का गला घोंटकर
ख़ुश दिखें, ख़ुश रहें ना रहें
ये सबक़ ही ग़लत था मग़र
हारकर जीतना, जीतकर हारना
जी सका ही न जो, क्या उसे मारना
अनुभवों की परीक्षा हुई, सीख लेकिन किताबी रही

©मनीषा शुक्ला

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