18 Jul 2018

लाचारी

अपनी लाचारी पर उस दिन, खुलकर धरती-अम्बर
रोए मुस्कानों के गीत लिखे फिर गीत सुनाकर जी भर रोए

दुनिया जाने दुनिया की पर मेरे मन की साध तुम्हीं थे
जग के न्यायालय में मेरा, केवल इक अपराध तुम्हीं थे
हमने सारे दुःख जीते हैं, सुख का इक अपवाद तुम्हीं थे
इन गीतों से पहले तुम थे, इन गीतों के बाद तुम्हीं थे
गीत हमारे गाकर जब-जब प्रेमी मन के नैना रोए
तब-तब हाथ हमारा छूकर काग़ज़ के सब अक्षर रोए

इन आंखों से उन आंखों तक जाने में हर सपना टूटा
हमसे पूछो, कैसा है वो, जिसका कोई अपना छूटा
बूंदों का दम भरने वाला, हर इक बादल निकला झूठा
देव मनाकर हम क्या करते, मीत हमारा हमसे रूठा
आंसू-आंसू हम मुस्काए, हममें आंसू-आंसू रोए
जाने कितने सावन तरसे, जाने कितने पतझर रोए

हम वो ही जो हर तितली को फूलों का रस्ता दिखलाए
लेकिन अपने आंगन में भूले से भी मधुमास न आए
एक तुम्हारी दो आंखों के जुगनू हमको ऐसे भाए
हमने दरवाज़े से सब सूरज, तारे, चंदा लौटाए
सुख वाले भी, दुःख वाले भी, हमने सारे आंसू रोए
तुमको पाकर भी रोते हम, जैसे तुमको खोकर रोए

© मनीषा शुक्ला

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