1 Aug 2018

सांसों का श्राद्ध

शेष अभी हैं प्राण हृदय में, शेष अभी अंतस में पीड़ा
मुझको थोड़ा और जलाओ, मैं कष्टों की अभ्यासिन हूं 

याद दिलाओ मुझको मेरा,तुम पर कुछ अधिकार नहीं है
जलना ही जीवन दीपक का, इसमें कुछ उपकार नहीं है
जाने क्यों है आशा, इसका कुछ भी तो आधार नहीं है
सपनों के शव पर लेटा मन, मरने को तैयार नहीं है
हाय! न कुछ भी उसने पाया, जिसने केवल हृदय गंवाया
मुझमें मैं भी शेष नहीं हूँ, मैं तो सचमुच बड़भागिन हूँ

महलों की अभिलाषा जिनको, है संत्रास उन्हीं को वन में
मैं तुलसी तो वनवासिन हूँ, अपने ही घर के आँगन में
प्यास सखी है जिसकी, पानी मरता जिसके आलिंगन में
विष पीकर अमृत ही बाँटा, उसने हर सागर-मंथन में
जिसके पास रखी है गिरवी, सागर की सारी मधुशाला
फिर भी जिसके सब घट रीते, मैं ऐसी इक पनिहारिन हूँ

दरपन पर मुस्काने वालो, लोहा पिघला कर दिखलाओ
सुख के घर मेहंदी बोई है, दुःख के भी तो हाथ सजाओ
दहता है तो दह जाए जग, तुम केवल पानी बरसाओ
नैनों में अब भी सावन है, मुझको थोड़ा और रुलाओ
उत्सव की नगरी के लोगो, मुझ पर हर अभियोग लगाओ
मैंने श्राद्ध किया सांसों का, मैं जीवन की अपराधिन हूँ

© मनीषा शुक्ला

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