आंख को ये है शिकायत आंसुओं का व्यय बहुत है
मान रखने को सभी का होंठ का अभिनय बहुत है
जो हृदय की आंच पाकर, बन गया जल आज ईंधन
हो चलेगी बूंद रस की, जग-प्रलय का एक साधन
जो न पाएगी कहीं पर दो घड़ी सम्मान पीड़ा
तोड़ देगा आज आंसू भी नयन से मोह-बन्धन
मानते हैं हम कठिन है, धैर्य कम, पीड़ा अगिन है
ठान ले तो आंधियों पर, दूब का निश्चय बहुत है
भावना का रक्त है जो, व्यर्थ क्यों उसको बहाएं
पीर के इस मूलधन को, हो सके जितना; बचाएं
ये ज़रूरी है, दुलारें आज मन की वेदना को
यूं न हम सागर उछालें, प्यास से ही चूक जाएं
जो समझना चाह लेगा, बस वही मन थाह लेगा
है कथानक एक ही, पर बात के आशय बहुत हैं
शोर से कहनी भला क्या एक गूंगे की कहानी
भूलने वाला भला कब, याद रखता है निशानी?
जो सुखों की साधना है और दुख का एक साधन
वो ज़माने के लिए है, आंख का दो बूंद पानी
पीर का दर्शक रहा जो, नीर का ग्राहक बनेगा?
इस कुटिल संसार के व्यवहार पर संशय बहुत है
© मनीषा शुक्ला
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