बाँसुरी की पीर जैसे, होंठ से ही अनकही है
प्रेम का अनुभव यही है!
मेह करके देह को भी प्यास को बहला न पाए
राम के तो हो गए पर, जानकी कहला न पाए
आग पर चलते रहे हम पांव में रचकर महावर
पीर ने इतना लुभाया, चोट को सहला न पाए
प्रेम के तत्सम रहें कुछ, प्रेम का तद्भव यही है!
प्रेम का अनुभव यही है!
गिन रहे बरसात की बूंदें उसी की याद में हम
वो हमें पहले मिला था और ख़ुद को बाद में हम
हम उसे दोहरा रहे हैं इक प्रणय के मंत्र जैसा
वो नयन में है मुखर तो मौन हैं संवाद में हम
प्रेम बिन सब है असंभव, प्रेम में संभव यही है
प्रेम का अनुभव यही है!
प्रेम में ऐसा पगा है, चाँद पीला हो गया है
आँख का हर एक कोना अब पनीला हो गया है
प्रेम में आतुर, भरा आकाश सूनी छत निहारे
प्रेम में चेहरा गुलाबी, कण्ठ नीला हो गया है
देह का उद्भव यही है, प्राण का वैभव
यही है प्रेम का अनुभव यही है!
© मनीषा शुक्ला
28 Dec 2018
21 Dec 2018
जो भी कहना
जब-जब, जिससे-जिससे कहना, जो भी कहना, आधा कहना
दुनिया वालों की आदत है, थोड़ा सुनना, ज़्यादा कहना
© मनीषा शुक्ला
दुनिया वालों की आदत है, थोड़ा सुनना, ज़्यादा कहना
© मनीषा शुक्ला
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अशआर
19 Dec 2018
15 Dec 2018
मनाही
चन्द्रमा को पा सशंकित दीप-तारे सब डरे हैं
सूर्य को अब सूर्य कहने की मनाही हो गई है
रश्मियों की शुद्धता की जांच पर बैठे अंधेरे
सांझ को संदेह, कैसे दूधिया इतने सवेरे
रात को अवसर मिला है, भोर को कुल्टा बुलाए
चाँद पर दायित्व है ये, सूर्य पर धब्बे उकेरे
तय हुआ अपराध, बाग़ी हो गया है अब उजाला
और उस पर जुगनूओं की भी गवाही हो गई है
फूल की शुचिता, यहां पर विषलता अब तय करेगी
छू गया है कौन आँगन, देहरी निर्णय करेगी
छांव की निर्लज्जता, जाकर बताती धूप जग को
आज से जूठन प्रसादों पर नया संशय करेगी
बाढ़ बनकर फैलती संवेदनाएँ रोकने को
एक पत्थर की नदी फिर से प्रवाही हो गई है
आरती कितनी कुलीना, अब बताएंगी चिताएँ
आंधियां बतलाएँ घूँघट को कि कितना मुख दिखाएँ
अब नगरवधूएं सिखाएंगी सलीक़ा रानियों को
नग्नता बतला रही है शील को, थोड़ा लजाएँ
रोज़ सच के चीखने से हो न जाए कान बहरे
इसलिए आवाज़ पर ही कार्यवाही हो गई है
सूर्य को अब सूर्य कहने की मनाही हो गई है
रश्मियों की शुद्धता की जांच पर बैठे अंधेरे
सांझ को संदेह, कैसे दूधिया इतने सवेरे
रात को अवसर मिला है, भोर को कुल्टा बुलाए
चाँद पर दायित्व है ये, सूर्य पर धब्बे उकेरे
तय हुआ अपराध, बाग़ी हो गया है अब उजाला
और उस पर जुगनूओं की भी गवाही हो गई है
फूल की शुचिता, यहां पर विषलता अब तय करेगी
छू गया है कौन आँगन, देहरी निर्णय करेगी
छांव की निर्लज्जता, जाकर बताती धूप जग को
आज से जूठन प्रसादों पर नया संशय करेगी
बाढ़ बनकर फैलती संवेदनाएँ रोकने को
एक पत्थर की नदी फिर से प्रवाही हो गई है
आरती कितनी कुलीना, अब बताएंगी चिताएँ
आंधियां बतलाएँ घूँघट को कि कितना मुख दिखाएँ
अब नगरवधूएं सिखाएंगी सलीक़ा रानियों को
नग्नता बतला रही है शील को, थोड़ा लजाएँ
रोज़ सच के चीखने से हो न जाए कान बहरे
इसलिए आवाज़ पर ही कार्यवाही हो गई है
© मनीषा शुक्ला
11 Dec 2018
कैसा है
अब मौजों से दूर समंदर कैसा है
बाहर छोड़ो, अंदर-अंदर कैसा है
माना तुमने सारी दुनिया जीती है
हमसे हारो, देखो मंज़र कैसा है!
© मनीषा शुक्ला
बाहर छोड़ो, अंदर-अंदर कैसा है
माना तुमने सारी दुनिया जीती है
हमसे हारो, देखो मंज़र कैसा है!
© मनीषा शुक्ला
9 Dec 2018
गीतों जैसा मन
केवल अधरों को छू लेना और कभी मत मन तक जाना
बेहद मुश्किल है गीतों को गीतों जैसा मन मिल पाना
साथी होना, मीत न होना, मेरे अनुभव ! गीत न होना
इस दुनिया का चलन रहा है अपने-अपने आंसू रोना
चाहे जितनी गन्ध लुटाए, चाहे जितना मनभावन हो
भाग्य यही, चन्दन के तन पर, सांपों के ही आलिंगन हो
धरती पर इंसान नहीं हैं, अब केवल भगवान बचे हैं
अब ज़िंदा पत्थर के आगे, कैसा रोना, क्या मुस्काना
शब्दों की ये टोली लेकर क्यों फिरते हम मारे-मारे
अखबारों के युग में बोलो, कौन सुनेगा गीत हमारे
विज्ञापन का दौर चला है, भाव हुए हैं कतरन जैसे
ऐसे में ये मन की बातें जग को लगती उतरन जैसे
मन को मरता देख अगर कुछ दिल के पास नहीं पिघला तो
फिर सपनों-सुधियों की ख़ातिर क्यों आंखों से नीर बहाना
हमने वो दिन भी देखे हैं, गीत बिके हैं बाज़ारों में
बंसी के सुर व्यस्त मिले थे, ख़ुद सरगम के व्यापारों में
वो दिन और हुआ करते थे, गीतों में ईश्वर बसता था
हम क्या रचतें गीत भला, ये गीत हमें हरदिन रचता था
कल तक रोज़ यहां लगते थे फूलों के, ख़ुश्बू के मेले
आज यहीं पर प्रतिबंधित है कोई भी आँचल महकाना
© मनीषा शुक्ला
बेहद मुश्किल है गीतों को गीतों जैसा मन मिल पाना
साथी होना, मीत न होना, मेरे अनुभव ! गीत न होना
इस दुनिया का चलन रहा है अपने-अपने आंसू रोना
चाहे जितनी गन्ध लुटाए, चाहे जितना मनभावन हो
भाग्य यही, चन्दन के तन पर, सांपों के ही आलिंगन हो
धरती पर इंसान नहीं हैं, अब केवल भगवान बचे हैं
अब ज़िंदा पत्थर के आगे, कैसा रोना, क्या मुस्काना
शब्दों की ये टोली लेकर क्यों फिरते हम मारे-मारे
अखबारों के युग में बोलो, कौन सुनेगा गीत हमारे
विज्ञापन का दौर चला है, भाव हुए हैं कतरन जैसे
ऐसे में ये मन की बातें जग को लगती उतरन जैसे
मन को मरता देख अगर कुछ दिल के पास नहीं पिघला तो
फिर सपनों-सुधियों की ख़ातिर क्यों आंखों से नीर बहाना
हमने वो दिन भी देखे हैं, गीत बिके हैं बाज़ारों में
बंसी के सुर व्यस्त मिले थे, ख़ुद सरगम के व्यापारों में
वो दिन और हुआ करते थे, गीतों में ईश्वर बसता था
हम क्या रचतें गीत भला, ये गीत हमें हरदिन रचता था
कल तक रोज़ यहां लगते थे फूलों के, ख़ुश्बू के मेले
आज यहीं पर प्रतिबंधित है कोई भी आँचल महकाना
© मनीषा शुक्ला
6 Dec 2018
2 Dec 2018
ज़ुबाँ से इश्क़ होता था वो उर्दू का ज़माना था
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