28 Dec 2018

प्रेम का अनुभव

बाँसुरी की पीर जैसे, होंठ से ही अनकही है
प्रेम का अनुभव यही है!

मेह करके देह को भी प्यास को बहला न पाए
राम के तो हो गए पर, जानकी कहला न पाए
आग पर चलते रहे हम पांव में रचकर महावर
पीर ने इतना लुभाया, चोट को सहला न पाए
प्रेम के तत्सम रहें कुछ, प्रेम का तद्भव यही है!
प्रेम का अनुभव यही है!

गिन रहे बरसात की बूंदें उसी की याद में हम
वो हमें पहले मिला था और ख़ुद को बाद में हम
हम उसे दोहरा रहे हैं इक प्रणय के मंत्र जैसा
वो नयन में है मुखर तो मौन हैं संवाद में हम
प्रेम बिन सब है असंभव, प्रेम में संभव यही है
प्रेम का अनुभव यही है!

प्रेम में ऐसा पगा है, चाँद पीला हो गया है
आँख का हर एक कोना अब पनीला हो गया है
प्रेम में आतुर, भरा आकाश सूनी छत निहारे
प्रेम में चेहरा गुलाबी, कण्ठ नीला हो गया है
देह का उद्भव यही है, प्राण का वैभव
यही है प्रेम का अनुभव यही है!

© मनीषा शुक्ला

No comments:

Post a Comment