केवल अधरों को छू लेना और कभी मत मन तक जाना
बेहद मुश्किल है गीतों को गीतों जैसा मन मिल पाना
साथी होना, मीत न होना, मेरे अनुभव ! गीत न होना
इस दुनिया का चलन रहा है अपने-अपने आंसू रोना
चाहे जितनी गन्ध लुटाए, चाहे जितना मनभावन हो
भाग्य यही, चन्दन के तन पर, सांपों के ही आलिंगन हो
धरती पर इंसान नहीं हैं, अब केवल भगवान बचे हैं
अब ज़िंदा पत्थर के आगे, कैसा रोना, क्या मुस्काना
शब्दों की ये टोली लेकर क्यों फिरते हम मारे-मारे
अखबारों के युग में बोलो, कौन सुनेगा गीत हमारे
विज्ञापन का दौर चला है, भाव हुए हैं कतरन जैसे
ऐसे में ये मन की बातें जग को लगती उतरन जैसे
मन को मरता देख अगर कुछ दिल के पास नहीं पिघला तो
फिर सपनों-सुधियों की ख़ातिर क्यों आंखों से नीर बहाना
हमने वो दिन भी देखे हैं, गीत बिके हैं बाज़ारों में
बंसी के सुर व्यस्त मिले थे, ख़ुद सरगम के व्यापारों में
वो दिन और हुआ करते थे, गीतों में ईश्वर बसता था
हम क्या रचतें गीत भला, ये गीत हमें हरदिन रचता था
कल तक रोज़ यहां लगते थे फूलों के, ख़ुश्बू के मेले
आज यहीं पर प्रतिबंधित है कोई भी आँचल महकाना
© मनीषा शुक्ला
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