12 Jan 2019

मेरी ख़ातिर मत रो

इस उपवन की हर सोनजुही अब कांटो से विस्थापित है
मेरी ख़ातिर मत रो अम्बर! मेरी धरती अभिशापित है

मेरी जानिब बढ़ता तारा, टूटे बिन लौट नहीं पाया
मेरी रातों के हिस्से में केवल टूटा सपना आया
हर दिन मेरा आधा चन्दा, रोता है मुझसे दूर कहीं
हर दिन मैंने पीड़ा का सुख, पूरा भोगा, आधा गाया
मेरी तृष्णा का मोल नहीं, मेरे घट का सम्मान नहीं
मेरी ख़ातिर मत रो बादल! मेरा सावन प्रतिबन्धित है

चन्दा से चातक की दूरी, गा-गा कर मुझको कहनी थी
पल भर आराम न हो मन को, पीड़ा उपजा कर सहनी थी
सपनों को पलकें देनी थी, पानी की प्यास बुझानी थी
नैनों ने मेरे दम पर ही काजल की रेखा पहनी थी
मेरा आंसू ही सम्बल है, हिचकी पर ठहरी सिसकी का
मेरी ख़ातिर मत रो कलरव ! मेरा उत्सव अपमानित है

सबका अनरोया रोना था, जीवन ही आंसू करना था
जलकर सूरज पिघलाना था, मेघों में नीरज भरना था
जाने कब से दुखियारे दुःख, मेरा रस्ता गुहराते थे
सुख के चौराहों से मुझको, बस आँखे मूंद गुज़रना था
मेरी सांसों का बोझ रहा प्राणों के हर इक झोंके पर
मेरी ख़ातिर मत रो जीवन! मेरा मरना प्रस्तावित है

© मनीषा शुक्ला

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