14 Jan 2019

शब्द ब्रम्ह है

"शब्द ब्रम्ह है" ख़ास तौर पर तब, जब वो लिखित हों। अपने आस-पास कई बार लिखने-पढ़ने वाले लोगो को ऐसे शब्दों का प्रयोग करते देखती हूँ जो कम से कम कविता के भाषा संस्कार में नहीं आते। हां! गद्य की विधाओं में कई बार चरित्रों का वास्तविक शाब्दिक चित्रांकन करने के लिए इस तरह के शब्दों का प्रयोग ज़रूरी हो जाता है। लेकिन मेरे हिसाब से कविता की विधा इस अनिवार्यता से परे है। कविता या गीत साहित्य की इतनी सक्षम विधा है, जिसमें गाली भी इतने लालित्य के साथ दी जा सकती है कि सुनने वाले को सुनने के बाद भी क्रोध न आए। एक ध्यान देने वाली बात यह भी है कि आज से सौ साल बाद जब लोग आपको पढ़ेंगे, उस समय आप यह बताने के लिए शेष नहीं होंगे कि आपने किन भावनाओं या परिस्थितियों के अधीन हो, इस तरह के शब्दों का प्रयोग अपने लेखन में किया। बहुत सम्भव है कि आपका पाठक उस समय आपकी भाषा को संस्कारविहीन समझें और उसे साहित्य का अंश ही न मान पाए और ये भी सम्भव है कि आपके भावों की उद्विग्नता, आपकी भाषा की अभद्रता से वह इतना प्रभावित हो जाए कि इसी भाषा का प्रयोग वह अपनी दिनचर्या में करने लगे। दोनों ही स्थितियों में, आप एक साहित्यकार की भूमिका का निर्वहन करने से चूक जाएंगे। दोनों ही स्थितियों में आपकी पराजय होगी। अगर आप कवि हैं, तो अपनी ज़िम्मेदारी को इस तरह भी समझें कि कोई भी पाठक कभी भी अपनी किसी पसंदीदा कहानी को कंठस्थ नहीं करता, केवल उसे पढ़ता है, उसके सार को ग्रहण करता है और भूल जाता है। जबकि कविताओं को कंठस्थ करता है, उन्हें गुनगुनाता है, और अन्य कई लोगों तक पहुंचाता है। ऐसे में आपकी भाषा का प्रभाव क्षेत्र और उसका कर्तव्य क्षेत्र कितना वृहद हो जाता है, आप कल्पना भी नहीं कर सकते। "सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् , न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन:" "अर्थात, सत्य बोलना चाहिये, प्रिय बोलना चाहिये, सत्य किन्तु अप्रिय नहीं बोलना चाहिये । प्रिय किन्तु असत्य नहीं बोलना चाहिये ; यही सनातन धर्म है।" पूर्णतः तो नहीं, परन्तु आंशिक रूप से यह श्लोक कविता के संदर्भ में बहुत सटीक है। कविता का काम है सत्य बोलना, प्रिय बोलना और अप्रिय सत्य को भी सलीके से बोलना। कुल मिलाकर कविता की भाषा एक दोधारी तलवार है। हम चाहेंगे तो इसे सत्यम, शिवम, सुंदरम की अर्चना बना देंगे और चाहेंगे तो महाविनाश, अमंगल और कुरूपता का साधन। 

© मनीषा शुक्ला

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